शहतूत
एक छड़े शहतूत के पेड़ पे रेशमी पुलिंदे ने घर बसाया है,
पांच ग्रामी काया में सांझ का सारा अंधकार भर लिया,
सूर्यास्त का जामुनी गर्दन पे बड़े मन से मल लिया
किरोशियाई चोँच से शहतूत के फव्वारे में पराग भर दिया,
शहतूत के स्वर फलों में बाँसुरी से फूटते हैं।
भोर के प्रकाश को कंधो पे लिया प्रेम-पत्र सा डोलता है,
पेड़ की झूमर से पपनियों पे धूल सा झूलता है
सोते शिशु की बंद मुट्ठी सी काया लिए,
कैसे तू मौन से कोमल मधु घोलता है?
आँसू बहुत याद आते हैं
कल रात, नींद और दुनिया के बीच की गली से गुज़रते हुए दो छीटें तुम्हारी याद के पड़ गए,
मैं समझ गया की अब तो यादों का खारा समुन्दर पूरा छानना होगा।
कहाँ से शुरू करूँ?
सोचा शुरू से शुरू करता हूँ,
गाँव की थकी धुँधली शाम से शुरू करता हूँ
जीते वक़्त तो नहीं सोचा था की चार साल बाद एक खाली पड़ी बसंत की रात में इन बसों के सफर को अक्षरों में पिरोऊंगा।
उस दिन गाँव से लौटते हुए तुम्हारे साथ बारिश में भीगना भरोसे में भीगने जैसा था
वो भरोसा आज भी सागर सा भरा है
उसके बाद कितने ही दिन तुमसे दूर, घर से दूर, तुम्हारे साथ बिताये
मेरा शहर तुम्हारा घर बन गया
दिल कितना भारी हो जाता है दिल्ली और तुम्हे साथ याद करके,
उन दिनों कैसे सब कुछ मुमकिन लगता था ना?
शहर भर की खूबसूरती छीनते भागते-दौड़ते थे।
और कभी कभी सारी खूबसूरती, सारी सम्भावनाये एक दूसरे के सामने आंसुओ में बहा देते थे,
कितनी कितनी बार कैसी कैसी दिली बीमारियों का इलाज करते थे।
एक साथ होते थे तो दुनिया का अर्थ क्या खूब समझते थे
दिल्ली की भीड़ों में खोना कितना याद आता है ना?
चमक कभी नहीं कोई।
सवेरे जंगलो में खाक छन्ना, दोपहरों को शराब फाकना, और थक के किताबों पर सो जाना ।
किताबों की गलियों में कितना लम्बा टहलते थे, झीलों पर कमल की सवारी करते थे।
तुम भी तो मेरे घर के पीछे वाले आँगन की झील ही हो, जिसका कच्चा रास्ता सिर्फ मुझे पता है।
चुनौतियाँ तुम्हारे साथ चुनौतियाँ नहीं लगती थी, लोधी की सैर लगती थी।
आँसू बहुत याद आते हैं,
तुम बहुत याद आती हो,
और दिल्ली बहुत याद आता हैं।
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