मुझे अपने साथ ले चलो
सुनो ना !
इस दौर की कहानी-
पहले जैसा ही है
कुछ खास नहीं बदला ।
और आज भी,
बह रहा है कही-कही गंदा पानी
‘गन्दा पानी’, जिसे लोग पी रहे है, और पिला रहे है…..
ग़न्दा पानी- बाटने और फूट डालने का, मार-काट और
महज राजनीतिक लाभ का……
भगवाधारी खींच रहे है हाथ मेरा
तुम मुझे कस कर पकड़ लो
मुझे अपने साथ ले चलो,
ले चलो दूर कही वादियों मे
जहाँ प्रकृति हो
और मै रहू सिर्फ तुम्हारे साथ ।
मोहब्बत का रंग महज हरा और लाल नहीं होता,
मोहब्बत तो खुद ही एक रंग है
जो भगवाधारी पर नहीं चढ़ता,
मोहब्बत बहुत बड़ी चीज है,
यूँ ही हर किसी को खैरात में नहीं मिलता
तुम्हें और मुझे मिला……
सुनो!
रोकने वाले रोकते रहेंगे,,
मार-काट करते रहेंगे,
पर तुम मेरा हाथ थामे रखना
मुझे अपने साथ ले चलना…..
मोहब्बत तो
मजहबों से भी परे है,
ये तो यूँ फैलती ही रहेगी
यह तो आदत है मेरी और तुम्हारी
बढ़ती ही रहेगी
जैसे कायनात……
बोलना होगा
सुनो !
जो दौर चला है आज कल का
इसमें
कान खड़े रखने होगे,
आँखों को निरंतर खोलना होगा
चुप्पी तोड़नी होगी;
बोलना होगा, और सबको बोलाना होगा.
रोना नहीं, अब चिल्लाना होगा
आंचल से आंसू ना पोछो
सबसे इस प्रश्न का अब उत्तर पूछो-
“कब खत्म होगा बेटियो और महिलाओ पर ये हिंसा?”
“कब तक रौंदोगे हमारे सपने और
कुचलते रहोगो इंसानियत ?”
सोच लेना !
सबके सब मौन साधे लोग,
ये समय नहीं है मौन का,
ये समय नहीं है भगवद भजन का
समय आया है आवाज उठाने का.
बोलेने का,
सब मिलकर बोलो, अन्याय के खिलाफ बोलो,
बलात्कार और छेड़-छाड़ के ख़िलाफ बोलो,
कुरीतियों -कुप्रथाओ के खिलाफ बोलो
जाति-गत, धार्मिक, लैंगिक भेदभाव के खिलाफ बोलो….
मानसिक बदलाव लाने के लिये बोलो ….
बाहर आना होगा हम सबको;
सपनों की दुनिया के घेरे से बाहर निकलो
क्योंकि
अपराध के जिम्मेवार वो सब हो जाते है
जो भरी सभा में मौन रह जाते है…..
सतर्क हो जाओ,
ऐ मौनधारित साथियो,
वरना मानवता ना बचेगी ऐसी घटनाओं से-
बेटी ना बचेगी, और मा ना बचेगी…
बोलो सब इतनी जोर से बोलो
कि ब्रह्मंड भी चौक जाये
हाँ ! जहा तक जाये नज़र किसी की
फिर हर जगह “काली”- “काली” ही पाये.
लोकतंत्र पुकार रहा है
जब कुछ कहने या
लिखने में डर सताने लगे
रह-रह के कोई कान में फुसफुसाने लगे
और
मन-ही- मन कोई खीझ होने लगे तो
समझ लेना लोकतंत्र पुकार रहा है ।
जब संविधान के अनमोल शब्द
स्वतः उच्चारित होने लगे,
और प्रतिरोध के स्वर
जेलों की दीवारों में कैद होने लगे तो
समझ लेना लोकतंत्र पुकार रहा है ।
सड़को औरचौराहों पर
जब खून के छीटें दिखने लगे;
जब कोई चीज थोपी जाने लगे
मन- मस्तिष्क जाम होने लगे
बेवजह कोई टकराने लगे तो
समझ लेना लोकतंत्र पुकार रहा है ।
‘शिक्षा’ जब बस्तो में सीमित होने लगे
पुस्तकालय की किताबें जब चिखने लगे
कलम जब रोकी जाने लगे
और
जब अभिव्यक्ति गली-मुहल्लो की दीवारों पर होने लगे
साथ ही
संकीर्णता का दीमक जब समाज को कुतरने लगे,
रंग- बिरंगे हमारी बगिया को जब कोई नोचने लगे तो
समझ लेना लोकतंत्र पुकार रहा है ।
प्रेम
प्रेम तो तब विदित होगा
जब तुम परेशान हो किसी
मानवतावादी मसले पर
और मैं उसके समाधान के लिये बढ़ती जाऊँ.
प्रेम तो तब अनुभव होगा
जब मैं पकडू हाथ तुम्हारा और रोकू
मार्ग भटकने पर;
फिर तुम अश्रुपूर्ण नेत्रो सहित
मुझे अपने हृदय से लगाते जाओ.
प्रेम तो तब समझा जायेगा
जब मेरी मौन में छिपी
वास्तविकता को तुम पढ़ जाओ
और मैं तुम्हारी गूढ़ अभिव्यक्ति को
अपने हृदय में समाती जाऊँ.
प्रेम तो तब मुखर होगा
जब मेरे भीतर तुम;
तुम्हारे भीतर मै
और
हम दोनो के भीतर ब्रह्माण्ड हो .
प्रेम तो तब सार्थक होगा
जब हृदय पटल से लेकर
ब्रह्माण्ड तक का
हम दोनो का सफर हो.
हे शारदे !
हे शारदे !
कदम- कदम पर रणक्षेत्र है ,
दुष्टता मुँह उठाये है आज
तेरी पराजय को ।
उठा लो शस्त्र अब हाथों में
और निकल पड़ो
विजय यात्रा को ।
हे शारदे !
तू बन जा फिर काली
उखाड़ फेंकने तुच्छ मानसिकता को ,
हाथों में तेरे तो
विद्या का शस्त्र पड़ा,
हुंकार भर , इसे चारों ओर घुमा ।
हँसने दे पित्रसत्ता को,
सामाजिक- रूढ़ियों और कुरितियों को ,
तू शस्त्र- विद्या के सारे लेकर
चल पड़बस रणभूमि में ।
काट-पीट दे तू
बँधी बेड़ियों को ,
जो तेरे हाथों पैरों में डाली गयीं ।
हाथों में
तेरे किताब-कापी का त्रिशूल-फरसा है
और, यह कलम तेरी भाला है ;
हर लिखे शब्द बने चक्र सुदर्शन
जो पापों का नाश करे ;
और हर कहे शब्द
कुप्रथाओं पर बाण बने .
हाथों में इतने शस्त्र सजा ,
गल कुप्रथाओं के कटे मुंड सजा ।
हे शारदे !
तू काली बन जा
विश्व को अब तेरी जरुरत आन पड़े ।
जब घर-घर की बेटी
पढ़ाई का वस्त्र पहने और
ऐसे ही शस्त्रो से सजे,
होगी फिर विजय-सामुहिक
“जय-जय शारदे” फिर विश्व कहे ।
तैयार रखो,
अपने औजार हमेशा ,
कापी – किताबें,
कलम हमेशा हाथ रहे ,
विचारों की धार तेज रखो
चाहे अनगिनत शुम्भ-निशुम्भ रास्ता रोक रहे ।
शिक्षा ऐसा औजार है-
जो आत्मबल को शक्ति देता है,
हे शक्तिवान शारदा – काली !
मेरा मन नित तुझको भजता है ।
अब आन बसो उर मेरे; ताकि
हर- शब्द और लेखनी में
तेरा अख्स उतरता दिखाता हो ।
मैं ‘काली’ हूँ
उड़ना चाहती हूँ,
और
मैं उड़ जाऊगी एक दिन;
पर मेरे पंख ना काटो .
मैं भीख ना मांगूगी तुमसे कभी
पर मेरे मेहनत पर कुल्हाडी ना चलाओ .
मैं हँस सकू जैसे मैं हसती थी कभी
पर मेरे हँसने पर तुम आंखे ना दिखाओ .
मौन की परिभाषा
सुनते-समझते थक गयी मैं,
इतना ना उग्र बना दो मुझे
कि
जिस ओर तुम नजर घुमाओ
हर जगह तुम ‘काली’ पाओ.
कली से काली बनने का सफर
सबसे ज्यादा तुम्हें अखरेगा,
क्रोध-वाली सुनामी
सबसे ज्यादा तुम्हें ही ले डूबेगी.
तुम्हारा अहम् डूबता है,
जब-जब मेरे कदम बाहर निकलते है .
तुम ही शर्म से मरते हो जब
मै आगे बढ़ती हूँ,
और
तुम व्यर्थ समय नष्ट करते -रहते हो .
‘काली’ प्रतीक है
तुम्हारे अहम् को मिटाने का,
तुम्हारे मन कि गंदगी को साफ करने का;
जब –जब दिखाई दोगे
रक्तबीज के स्वरूप मे तुम
आने ही पड़ेगा, ‘काली’ बनकर .
जब-जब तुम तुम मेरे सपनों को रौदोगे
मूर्ति समझ कर गर गंदे छीटे मुझ पर डालोगे,
मेरे धैर्य को ललकारोगे
तब-तब आना ही होगा
‘काली’ को.
मै ‘प्रेम’ हूँ ,
‘समपर्ण’ और ‘धैर्य’ भी हूँ .
पर जब –जब आयेगी बात
‘अस्तित्व’ की, तब-तब
मै आऊगी
क्योंकि
मै ‘काली’ हूँ ……..
अवसर
डर लगता है
एक कमरे में,
बन्द रहने से
सिर्फ रसोई और आँगन तक सीमित रहने से ।
बैठने का मन होता है
अपने ही घर की ड्योरी पर
वही बैठकर
चाँद-तारों को निहारने का मन होता है
रसोई और आँगन से ,परे दुनिया को
देखने का मन होता है ।
वो शीतल वायु
जो छूकर निकलती थी कभी,
उसे बाहर निकलकर
छूने का मन होता है ।
डर लगता है,
भविष्य से
कही बंध ना जाऊँ
महज आँगन, रसोई और एक शयन कक्ष तक ।
खुली हवा में सांस लेने का मन करता है ।
अपने विचारों को
सुना सकू दुनिया को
ऐसी आवाज बनने का
मन करता है ।
बड़े होते- होते ही,
एक लड़की ने पाया क्या ?
बंदिशे,
चार दीवारी से बाहर न निकलने की आज्ञा
दायरा मिला- सीमित
वही पुरानी चाहर दीवारी ।
उसे मिला सिर्फ अहसान
पाला-पोसा गया और पढ़ाया गया;
ये सारे अहसान ।
कोई स्वाभिमानी लड़की अब क्यों सहे
शादी-विवाह करवाने का अहसान ?
हे समाज !
तेरे कारण सब सहना पड़ता है एक लड़की को-
जीवन भर ताने-उलाहनाए,
चरित्रवान बनने की सीख और
चरित्रहीनता का आवरण ।
पढ़े या लिखे वो फिर भी
सब जगह पाती है बंदिशे ।
उच्च मानसिक स्तर तक पहुँचने के बाद भी
उसे रहना पड़ता है मौन
घर की चाहर दीवारी में ।
उड़ती है एक लड़की
फिर उड़ेगी ,
दूर नील-गगन में चाँद के
पास तक जा पहुँचेगी
हवाओ से बातें करेगी –
अपने अरमानो के पंख फैलाकर
तोड़ेगी वो सामाजिक कुरीतियों को ,
बस एक अवसर की तलाश
जब दुनिया बदलेगी एक लड़की ।
बिंदी
कितना अच्छा होता ना !
गर वह स्वतंत्र होती
बिन्दी लगाने व
न लगाने के घेरे से,
वैसे ही जैसे –
किसी परिणय में बंधने से पहले थी ।
एक में न लगाया तो
अपशगुन,
दूजे में लगा लिया तो,
जहन्नुम ।
बिन्दी बढ़ा देती है
जो किसी कि खूबसूरती
वही बिन्दी,
कभी विवाद का कारण बन जाती है ।
बिन्दी !
जिसे वो लगाती है कभी पूजा में,
अब देखना चाहती है इसे
नमाज है ।
बिन्दी, जिसे सजाती है वो
माथे पर बड़े प्रेम से,
कही रोक ना दे कोई
टोक ना दे कोई
इसी खेल में उलझ जाती है वो ।
कभी-कभी नहीं लगाती है वो बिन्दी,
स्वेच्छा से पर,
डर है उसे
कारणो में कही उलझा ना दे कोई
टोक- टाक और कही
ताने ना दे कोई ।
बिन्दी को
किसी की पसंद ही रहने दीजिए
काली-लाल बिन्दी से
स्त्री को परे होने दीजिए,
लगाये या ना लगाये,
उसे स्वतंत्र रहने दीजिए ।
बिन्दी में किसी का
संसार है या बंधन
अब उसे स्वयं
निर्णय करने दीजिए
उसे स्वतंत्र रहने दीजिए
और भी काम है उसको
उसे काम करने दीजिए ।
मजदूर जागेगा
मजदूर जागता है,
पैदल चलता है ,
थक के सोता है ,
ट्रेन के नीचे कटता है .
हत्या है उसकी
सब मिल के गुनहगार है उसके मौत की
उसके पैरों के छालो की,
उसके भूखे पेटो की ,
उसके दूध पीते बच्चों के रोने की आवाज़ की .
सोता है मजदूर
चैन की नींद से नही,
मीलो भूखे- नंगे पैरो चलकर ,
लेकिन जागेगा, एक दिन जागेगा
तब सारी दुनिया भी जागेगी
और
नींद खत्म होगी सब गुनहगारों की .
रोटी की भूख उन्हे
मीलों दौड़ा लायी थी ,
गाँव की मिट्टी की सोंधी खूसबू ने
फिर गाँव जाने की उम्मीद जगायी थी ……
लोगों के दुहरे-बदलते स्वभाव से
भयभीत हो रहा था मजदूर
लेकिन, फिर भी आज गाँव भाग रहा था मजदूर .
उसे क्या पता था,
डंडे ही खाने होंगे जीवन भर ,
गरीबी और लाचरी में ,
साथ ही
अॅग्रेजी की मार और
फार्म भरवाने की दुविधा ने ,
कब से उनके स्वाभिमान को चोट पहुचायी है .
एक दिन
सोयी चेतना फिर आयेगी
आवाज़ देने, मजदूर को
फिर जगायेगी .
सारी मेहनत के पसीने का,
मीलों पैदल चलने का
पैरों के छालों का
खून के कतरे- कतरे का
वो हिसाब-किताब मागेगा,
जब,
मजदूर जागेगा …
जरुर जागेगा, जागेगा
तब सारी दुनिया भी जागेगी
और
नींद खत्म होगी सब गुनहगारों की ………
मानवता
सुनो !
बोलना गुनाह है ?
लिखना गुनाह है ?
जिस-जिस ने बोला था
उसे पीना पड़ा जहर का प्याला .
जिस- जिस ने लिखा
कुरीतियों और कुव्यव्स्था पर
बदनामी झेलनी पड़ी और
उसको यातनाए दी गयी .
याद भी किये जाते है ,
पूजे भी जाते है ,
ये अमर लोग
लेकिन, महज महफ़िलों और पन्नो तक .
डरती है सत्ता ,
पुन: इनके आगमन पर
इसीलिये इनको जहर
पिलाये जाते है ,
इनके घर जलाये जाते है ,
इनकी निर्ममता से हत्या की जाती है
ताकि ,
अगला भी मौन रहे ,
जैसे उस वख्त भी समूची मानवता मौन थी
जब ये सूली पर चढ़ाएं गये .
बोले थे कभी ,
सुकरात, जीसस, मीरा, कबीर ,गांधी, मंडेला और अनेक लोग .
जरुरत है इस सदी को फिर,
ऐसे ही निर्भीक और सत्यनिष्ठ आवाजो की
जो मानवता को बचा सके .
ऐसे ही मुट्ठी भर लोगो की
जिसने इतिहास रच दिया था कभी,
जिनसे सत्ता की- कुर्सियां हिल जाया करती थी.
ताकत होती है अनंत
एक आवाज और
महज पाँच रुपये के एक कलम में,
डरते है कुछ लोग और सत्ता इससे .
रोकती है इसे,
चलने से
साथ ही रोकती है
चलाने वालो को .
इहलोक में भी बहुत कुछ है
करने और कराने को ,
मानवता को बचाने,
और सम्पोषित करने को.
सुनो मित्र !
अब तुम स्वयं विचार करो ……….
ढाई शब्दो में महिमा
सुनो ना !
छोड़ना तो आसान है,
कठिन तो पकड़ना है,
जैसे
तोड़ना आसान है,
कठिन तो सम्भाल के रखना है.
सब मंत्र-मुग्ध है तुम्हारी एक नजर पर
हम तो आंखो में कुछ चला ना जाये,
इस पर नजर रखते है.
सब जीत पर बधाइयाँ देते है,
हम तो हार में भी हाथ थामे रखते है.
जब चुप होते हो तुम
तो हम वो चुप्पी पढ़ने में लगे रहते है.
पता नहीं किसे प्यार कहते है ?
अभी तक हम इस पहेली को समझने में उलझे है.
तुम तोड़ सको तो तोड़ दो
हम कभी रोकने के लिये खाली नहीं बैठे है.
बस लाके दिखाओ कोई हमसा भी
इसलिये हम दर पर तुम्हारे अभी बैठे है.
ना कोई रिश्ता है तुमसे, और
ना ही हम बनायेगे
हम खुदा की मर्ज़ी में ही
अर्ज़ी लगाये बैठे है,
वो मोड़ दे अगर तेरी ओर,
हम कैसे ना आये, क्योंकि
तुम भी तो दीप जलाये बैठो हो….
बनो नहीं, कुछ हो रहा है तुम्हारे दिल में ,
भले ही मुझसे छिपाये बैठो हो…..
हम मुस्कुराते है तुम्हारी चोरी पर
तुम तो चोरों के सरदार से ही चोरी करते हो.
खिली जो मेरी बगिया तुम्हारे आने से
और तुम हो कि फूलों में आनंद ढूंढते हो.
बनो नहीं ,
तुम तोड़-फोड़ की बाते करते हो
फिर, जोड़-जाड़ के हिसाब भी लगाते हो.
आती है तुमको याद मेरी
क्यों सीधे-सीधे नहीं कहते हो……
जाने दो इतना बेचैन मत हो,
बड़े- बड़े इसका पार ना पा सके
ढाई शब्दो में महिमा जिसकी
नेति-नेति कह सब , बस सिर झुका ही सके…………
प्रेम के दो घूँट
सुनो !
चारों तरफ फैले इस
हिंदु- मूस्लिम उन्माद में
मुझे प्रेम के दो घूँट दे दो.
अनवरत चले इस संघर्ष को,
कम-से-कम इस सदी में,
कोई पूर्ण् विराम दे दो
मुझे प्रेम के दो घूँट दे दो.
जाति, धर्म की राजनीति खत्म कर
लोक-हित को आधार बना
लोगो में खोयी मानवता जगाकर, सिर्फ
मुझे प्रेम के दो घूँट दे दो.
वर्षों से हम किस्से सुनते आये आदर्शो की,
कुछ अच्छा भी हो रहा है,
इसी आस में ही सही
यथार्थ के धरातल पर
मुझे प्रेम के दो घूँट दे दो.
सुनो !
तुम चौकन्ने रहो, कोई अलग ना करे
तुम्हे-मुझसे और मुझे तुमसे
भरोसा रखो इंसनियत और ईश्वर पर
बस
मुझे प्रेम के दो घूँट दे दो
मैं ‘काली’ हूँ
Recent Comments:
- Name: Vinay kumar
- Message:
- Name: Swati tiwari
- Message: Apki kavita prem ki jhalak dikhti h…
“ढाई शब्दों में महिमा” कविता में काफी रस छिपा है। कविता के पढ़ने के उपरांत ही यह मेरे मन के बहुत करीब हो गई। इस कविता ने मुझे कहीं अतीत के पन्नों से रुबरु कराया और कवियित्री की कविता तब सफल हो जाती है जब पाठक उससे अपने आप जुड़ जाते।
Wow… beautiful poem👍👍
Good
Good job sweta, nice line,, hamesa hi acchi lagti h mujhe teri poem
Waah mam kavita bahut pyari hai issi tarah likhte rahiye aur hume prem ke bhav se awgat karate rahiye kavita ke raas ne mujhe yu usme duba dia mano mai wahi hu kisi ansh mai.
Thank you so much all of you…..
बहुत ही अच्छी कविता है.. बहुत बहुत बधाई प्रिय
बहुत अच्छी कविता है, बहुत बहुत बधाई
बहुत खूब स्वेता … लिखती रहो
बहुत सुन्दर कविता श्वेता।
खूब लिखती रहो ऐसे ही।
A brilliant scholar, Shweta. Poems are so nice. Keep it up.
Bahut accha likha h shweta apne
Thank you so much……
Keep it up. Very nice poems
दिल को छू लेने वाली ” कविता ” है श्वेता जी ।
इसी तरह लिखते रहिये👌👌👌🙏
Heart touching poem diii….
तुम्हारी बिंदी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी।।। मानो तुमने इस कविता में हर उस औरत का दर्द लिख दिया हो जिसको हर रोज इन सवालों से रूबरू होना पडता है। ऐसे ही लिखती रहो प्रिय।।।।
Thank you mam….