तुम भले खुद आओ न आओ
बस तुम्हारी आहटें आती रहें
दुनिया की भाग दौड़ में
आगे निकलने की होड़ में
दिनोदिन बढ़ती हुई उलझन
थक हार कर जब टूटता तन
जब राह हमें कुछ सूझे नहीं
अब क्या करें कुछ बूझे नहीं
तब हल्की सी आहट तुम्हारी
अमृत बूँद बन जाती है हमारी
जहां अपने ही ना निभाते नाते
महफ़िल में तन्हा खुद को पाते
अपनी ही परछाई अनजान लगे
हाथ थामना भी जब एहसान लगे
हर बात पर जब होने लगे मलाल
खड़े हो जाएँ जब अनेकों सवाल
तब तुम्हारी आहट आये यकायक से
ज़िन्दगी से फिर नजरें मिलाते हक़ से
तुम भी लड़ रहे हो अपना समर
कभी भी न तुम भूल जाना मगर
कि कोई तुम्हारी आहटों से जिन्दा है
तुम्हारे बिना जैसे परकटा परिंदा है
ये मसला समझ से परे रूहानी है
आज की नहीं ये चोट पुरानी है
सुनो तुमसे बस इतना है कहना
आओ न आओ, आहटें देते रहना