बिस्तर की सलवटे कह रही है बैचैनी की कहानी
तकिये की नमी से लगता है रात भर रोती रही दीवानी
तन्हा राते, तन्हा जीवन, चारो ओर तन्हाई
उलझी लटें, तकती आँखे, कह रही थी व्यथा की गहराई
तीन महीने पहले, शायद थोड़ी सी मुस्करायी थी
जब पडोसी की चिठ्ठी, गलती से इसके घर चली आयी थी
हालाँकि लिफाफे पर पता देखते ही मुस्कराहट उड़ गयी थी
पर चिठ्ठी के इंतज़ार में उसके बाद वो कुछ दिन सही थी
दिन भर आँगन में बैठ कर सड़क को तकते रहना
ओर रात भर आँखों से आंसुओ का बहते रहना
अगर कभी नींद लग जाये तो अचानक घबरा के उठ जाना
ओर दौड़ कर खिड़की से बाहर सड़क को देख कर आना
कभी कभी वो घर से बाहर भी जाती है
हर तीन चार दिन में एक चिठ्ठी को डाक-बक्से में डाल आती है
यूँ तो संसार में किसी को भी जीत-जी चैन नहीं आता
पर काश कि इस संसार में किसी को ये इंतज़ार नहीं सताता
पत्थर की सड़क को तकते तकते आँखे पथरा जाए
ऐसा इन्तेज़ार किसीकी जिंदगी में न आये