सोचो गर काव्य और कवितायें बोल पातीं
तरह-तरह की कुछ ऐसी आवाजें आतीं
मैं हूँ एक अनसुनी बात
तुम करो मुझ पर गौर
हाँ मैं अधूरा सा इश्क़ हूँ
आओ करो मुझे और
बेपरवाह और आवारा
है मेरा न कोई ठौर
मैं वो हूँ ढलती जवानी
गुजर गया जिसका दौर
मैं बंधन में जकड़ी ख़ामोशी
कैसे कर पाऊं थोड़ा शोर
मैं बेख्याली का वो ख्याल
चले जिस पर न कोई जोर
मैं बेवफाई का वो मंजर
टूट चुकी है जिसकी डोर
मैं जैसे महकी खुशबू
मुझे फैलाओ चारों ओर
कल-कल बहती नदी सा मुझे मदमस्त बहने दो
मैं कविता हूँ जनाब, मुझे जी खोल के कहने दो