जाते जाते वो मुझे एक किताब दे गया
ताउम्र के लिए इक हसीं ख़्वाब दे गया
पलटते पन्ने दर पन्ने खुल रहे कई राज
जैसे आहिस्ता सरकता हिजाब दे गया
समेटे साथ बीते हर लम्हे की दास्ताँ को
कहीं ‘छलिया’ कहीं ‘बुत’ का ख़िताब दे गया
ढूंढ़ता हूँ हर लिखे अल्फ़ाज़ के मायने
ये कैसा अजब सा मुझे हिसाब दे गया
अब खुली नींद और अब ही तो जागे हैं
सवालों और मलालों का सैलाब दे गया
मैंने माँगी थी इक ही निशानी जाते-जाते
मिला है किताब के अंदर गुलाब दे गया
उस फूल की खुशबू में कुछ ऐसा नशा है
‘ इश्क’ नाम की जैसे मुझे सराब दे गया