महामारी
माना महामारी ने घेरा, मगर विश्वास बाकी है
जीत लेंगे हम अंधेरा , दिल मे आस बाकी है
हाँ ये ऐसी आपदा , नज़दीकियाँ जिसमे गुनाह
दिल से लेकिन दिल मिला, अगर एहसास बाकी है
इंसान के बढ़ते हुए, दंभ को ललकार कर
कुदरत ने है किया इशारा, अभी हिसाब बाकी है
सुन ज़रा क्या कह रही, शाख पे कोयल की कूक
उजड़ गया जो चमन सारा, फिर क्या ख़ाक बाकी है
स्वार्थ लालच छोड़ कर, इंसानियत की डोर से
हर शख्स को अपना बना , अगर जज़्बात बाकी है
साथ जो मिल के चले, तो रात की स्याही से भी
छीन लेंगे हम सवेरा , ये अहसासात बाकी है
कविता की ताकत
कितनी भी
अकेली हो
कविता अपने आप में
पर खिड़की पर
अन्तर्मन की
जो देती है दस्तक
हर दुख को मिल जाती है
स्वयं से जैसे
लड़ने की ताकत
निरा जर्जर शब्द भी
ढ़ो लेता है
अपनी पीठ पर
सदियों के
अपमान का
भारी गट्ठर
क्या कहें, किस से कहें ….
क्या कहें, किस से कहें, आशना मिलता नहीं
दिल भी अपनी धड़कने , आज तो सुनता नहीं
टूटने का ऐसा तो, मंज़र कभी पहले न था
चल रहें हैं साथ पर , कारवां बनता नहीं
कैसी ये मजबूरियाँ, कैसे हैं ये फांसले
लाख जोड़ो महफ़िलें, दिल मगर जुड़ता नहीं
जल रही हैं बस्तियाँ, धुआँ धुआँ हैं दिल यहाँ
साबुत जहां हो जिस्मो-जाँ, ऐसा नगर मिलता नहीं
रुसवाइयों का ही सही, ये दौर जाएगा गुज़र
देर तक यूं दिल भला , रंजिशें बुनता नहीं
कुछ रिश्ते
कुछ रिश्ते
पलते हैं यूं भी
गुमनाम से
अंजान से
कन्दराओं के
घुप्प अँधेरों में
जहां न खिड़की
न कोई द्वार
न आवाज़
न परवाज़
न स्पंदन
न क्रंदन
बस ज़हन में
इक रंग
रक्त से गहरा
नसों में दौड़ती
स्मृति की
चंद लकीरें
और आँख में ठहरी
अब्र की एक
मख़मली बूंद !
छुक छुक आए गाड़ी
छुक छुक छुक छुक आए गाड़ी
टेशन पर रुक जाए गाड़ी
गाड़ी से निकले कुछ बंदर
बैठे थे डिब्बे के अंदर
देख के बंदर मच गया शोर
इधर उधर सब दौड़े लोग
छोड़ के भागे सब सामान
किसी तरह बच जाए जान
जब देखी केलों की हाट
बंदरों के तो हो गए ठाठ
कुछ तो खाएं और कुछ फेंके
खुश होकर सब बच्चे देखें
केले खा बंदर इतराएं
कई तरह के खेल दिखाएँ
हाथ में ले शीशा शरमाएँ
टोपी ओढ़ ससुराल मे जाएँ
पहन के फिर पैरों मे झांझर
ठुमक ठुमक के नाचें बंदर
ठुमका देख के बंदरों का
आया हमको खूब मज़ा
खेल दिखा सब बंदर ऐंठे
वापस जा डिब्बे में बैठे
छुक छुक छुक छुक चलदी गाड़ी
बच्चा लोग बजाओ ताली !!!
इक मज़दूर लड़की का सपना
दो नयनों के विस्तृत नभ पर
चमकी हठात उजली रेखा
पलकों पे जैसे पंख लगे
मैंने भी इक सपना देखा
देखा मैंने मै ले बस्ता
जा बैठी कक्षा के अंदर
जहां न मालिक, न मज़दूरी
बस सखी सहेली और टीचर
मै कलम किताब ले झूम गयी
जैसे मै जन्नत चूम गयी
दिन रात लगा मै जान पढ़ी
मै सौ सौ ले अरमान पढ़ी
और फिर इक दिन ऐसा आया
मैंने खुद को अफ़सर पाया
पर जैसे मै कुर्सी पर बैठी
कानो मे माँ की डपट पड़ी
झट आँख मली और हुई खड़ी
सब भूल के भट्टे पर पहुँची
मालिक की कड़वी बात सुनी
ईंटों मे जा के ईंट बनी
सपने को कहाँ छोड़ आऊँ मै
कहो कैसे स्कूल मे जाऊ मै
किताबें वो पास बुलाती हैं
मन मे एक टीस जगाती हैं
मै भी तो आखिर इंसा हूँ
मै भी तो पढ़ लिख सकती हूँ
क्यों सदा टोकरी मेरे सर
मै भी अफ़सर बन सकती हूँ
सपनों की सुंदर दुनिया पर
मेरा भी तो कुछ हक होगा
हाँ मैंने इक सपना देखा
मैंने भी इक सपना देखा
इक दाग जो बाल मजूरी है
फिर क्या ऐसी मजबूरी है
क्यों इसने खुशियों को घोंटा
क्यों हमे पढ़ाई से रोका
हम रस्ता नया बनाएँगे
बालश्रम से मुक्ति पाएंगे
चमकेगी संघर्ष की रेखा
हाँ मैंने ये सपना देखा !!!
Share Your Feedback