महादेव
हे महादेव !
हे शिव शंकर !
हे कैलाशनाथ !
हे त्रिपुरारी !!
हे उमापति !
हे मृत्युंजय!
हेमहाकाल !
हे गंगाधारी !
तुम
सर्वज्ञ,
अनंत,
परमब्रहम ,
अखिल विश्व
के तारक,
कृपानिधि,
जगदव्यापी !!
हे नीलकंठ !
हे सोमेश्वर !
हे विश्वनाथ !
हे सर्पधारी !!
हे नटराज !
हे परमेश्वर !
हे भूतनाथ !
हे शशिधारी !!
तुम
सर्वज्ञ,
अनंत,
परमब्रहम ,
अखिल विश्व
के तारक,
कृपानिधि,
जगदव्यापी !!
हे त्रिलोकेश !
हे रामेश्वर !
हे पशुपतिनाथ !
हे कामारी !!
हे पिनाकी !
हे परमेश्वर !
हे केदारनाथ !
हे मुंडमालधारी !
तुम
सर्वज्ञ,
अनंत,
परमब्रहम ,
अखिल विश्व
के तारक,
कृपानिधि,
जगदव्यापी !!
साँवली
वो साँवली सूरत,
वो तीखे नैन नक्श,
आँखो में चमक,
होठों की मुस्कुराहट,
खिलखिलाती,
मुस्कान बिखेरती,
जो देखे तो ,
देखता रह जाये,
ऐसा रूप था,
उसका ,
पर एक कसक,
थी उसके मन में,
जो देखता,
कहता अगर ,
ये गोरी होती,
तो कितनी,
सुन्दर लगती ।
पढाई में अव्वल,
खेलकूद में आगे,
मीठी आवाज,
मन को लुभाती,
हर किसी को पल,
मे अपना बनाती,
पर एक कसक थी,
उसके मन में,
जो देखता ,
उसको कहता ,
थोङा रंग और ,
होता, तो सब पर ,
गजब ढाती ।
क्या कोई ,
मोल नहीं ,
उसके गुणों का,
सुन्दरता का,
उसकी काबिलियत,
एक रंग के नीचे,
क्यूँ दब जाती है,
एक चुभन सी,
बन के आँखों से,
अश्रु धार बह ,
निकली कोरो से,
कब तक ,
आखिर कब तक ?
मैंने पूछा चाँद से
मैंने पूछा चाँद से,
तुम तो बहुत खूब हो,
छलिया हो या मनमीत हो,
सबको प्यार बाँटते हो,
हर किसी के प्यारे हो ।
कभी करवा-चौथ पर ,
पर पत्नियों के दुलारे हो,
कभी ईद का चाँद बन के,
लुटाते खुशियाँ सारी हो।
कभी प्रेयसी बन लुभाते,
सारे प्रेमियो को तुम,
कभी विरही को प्रियतम
की याद दिलाते हो।
कभी पूर्णिमा का चाँद,
बन दमकते हो,
कभी अमावस की रात,
दीवाली मनवाते हो।
कभी सागर भी हिलोरे
मारता है,तुम्हे
आगोश में ले लेने को,
कभी पर्वत भी हाथ,
फैलाते है तुम्हें छूने को।
कभी दाग भी तुम्हारे ,
मशहूर जाते है,
कभी खूबसूरती के चर्चे,
कहे जाते है ।
कैसै कर लेते हो,
सबको खुश,
कैसै प्यार बाँटते,
जाते हो ।
मैंने पूछा चाँद से,
तुम तो बहुत खूब हो,
छलिया हो या मनमीत हो,
सबको प्यार बाँटते हो,
हर किसी के प्यारे हो ।
कविता का जन्म
एक कविता ,
जब लेती है जन्म,
टप से पानी की बूँद की तरह,
गिरती है मेरे अंतर्मन में,
झट से उसे, शब्दों मे बाँध के,
उतार देती हूँ कागज पर ,
आसमानी नीली स्याही से,
पिरोती हूँ फिर शब्दों की माला ,
फिर उस माला से एक कविता बनाती हूँ ।
एक कविता,
तब लेती है जन्म,
एक बेल की तरह मुझसे,
लिपट लिपट जाती है,
झट से, बाँध देती हूँ उसे,
अपने शब्दों की डोरी से,
उतार देती हूँ, अपने उपवन के,
आँगन में, मधुमालती सी महकाती हूँ ।
एक कविता,
जब लेती है जन्म,
बूँद बन के गिरती है,
सीप जैसै मेरे हृदय में,
भावनाओं के समंदर में लहराती है,
पिरो देती हूँ, शब्दों के जाल में,
उसको मोती बनाकर मैं,
अपने आपको सजाती हूँ ।
मैं कौन हूँ ?
मैं कौन हूँ ?
अपने अस्तित्व को तलाशती,
निःशब्द हूँ, मौन हूँ ।
क्या मै पथिक हूँ ?
जीवन पथ पर बढती हुई,
कहीं रूकती हुई,
कभी चलती हुई,
प्रेम की ठंडी छाँव,
ढूँढती ,नहीं थकती हुई,
मखमली, कटीली ,
हर राह पर चलती हुई,
हाँ, शायद पथिक हूँ मैं ।
मैं कौन हूँ ?
अपने अस्तित्व को तलाशती,
निःशब्द हूँ, मौन हूँ ।
क्या मै प्रेम हूँ ?
जीवन पथ पर बढती हुई,
प्यार बाँटती,
बटोरती हुई,
रिश्तों में अपना वजूद,
ढूँढती हुई,हँसती हुई,
रसीले,कटीले,
हर रिश्ते को सँभालते हुए,
हाँ, शायद प्रेम हूँ मैं ।
मैं कौन हूँ ?
अपने अस्तित्व को तलाशती,
निःशब्द हूँ, मौन हूँ ।
क्या मैं नदी हूँ ?
जीवन पथ पर बढती हुई,
कभी मचलती हुई,
कभी ठहरती हुई,
किनारा ढूँढती हुई,
लहराती हुई,
बलखाती हुई,
हर कश्ती को बचाती हुई,
हाँ , शायद नदी हूँ मैं ।
मैं कौन हूँ ?
अपने अस्तित्व को तलाशती,
निःशब्द हूँ, मौन हूँ ।
क्या मै स्त्री हूँ ?
जीवन पथ पर बढती हुई,
कभी हँसती,
कभी रोती हुई,
ममता की ठंडी छाँव,
देती हुई,कभी माँ बनती,
कभी पत्नी, कभी बेटी बन ,
प्यार बाँटती हुई,
हर किसी के अस्तित्व
को सँवारती हुई,
सृजन और पोषित,
करती हुई,सिर्फ देती रही,
हाँ, मै स्त्री ही हूँ ।
मैं कौन हूँ ?
अपने अस्तित्व को तलाशती,
निःशब्द हूँ, मौन हूँ ।
हाँ, मै स्त्री ही हूँ ।
संपूर्ण, सृष्टि की सृजनहार,
नव अंकुर की पालनहार,
वात्सलय व प्रेम की मूर्ति,
रिश्तों की स्फूर्ति,
नैसर्गिक कलाकार,
प्रकृति का उपहार,
हाँ, मै स्त्री ही हूँ .