खाली कविता
खाली कविता,
चाहे उसमें जीवन भर लो,
चाहे भर लो जीवन के आगे का कुछ
या फिर जीवन के पहले का कुछ ।
कविता पहचान ही जाएगी तुम्हारा मन
और समा लेगी तुम्हें खुद में,
तुम्हारा जीवन होगा कविता का भी जीवन ।
कविता भी देखेगी तुमसे ही सपने,
कविता भी याद करेगी तुमसी ही
न भूल पायीं यादें ।
तुमको न कभी समझ पाएगा ज़माना,
कविता ज़रूर समझ लेगा,
कविता कोई और लगेगी उसको ।
इतने में एक पियक्कड़ भरी महफिल में
तुमसे तुम्हारी कविता भी छीन लेगा,
तुम्हारी पहचान का
आखिरी सिरा कट जाएगा ।
चुप
दीवार की चुप ने
मुझे भी चुप कराना चाहा,
उसकी चुप बहुत गहरी है,
दलदल सा, झकझोर देती है,
सांसें थाम लेती है ।
उसकी चुप रेलगाड़ी सी
ध्वनि करती है,
बिना कुछ भी कहे,
कोई अपनी चुप से कैसे
कुछ कह सकता है?
दीवार कह सकती है,
उसकी चुप्पी में भी बोल हैं !
एक दिन उसने मुझसे आग्रह किया-
“थोड़ा पानी पिला दो, गला सूख रहा है ।”
पानी पीते ही दीवार ठंडी पड़ गई,
उसके बाद आज तक
उसने कभी कुछ नहीं बोला ।
उसकी चुप भी शांत पड़ गई ।
आज गर्मी बहुत है,
बाहर खूब तेज़ लू चल रही है,
मुझे भी प्यास लगी है…
नवीन
नवीन निशा,
नवीन पता,
आगंतुक नया
और
आतुरता नई ।
कागज़ नव्य,
अवलोकन नव्य,
नव चेतना,
नव अंबर ।
अभी कहां आलोकित मन ?
पुल्कित, पल्लवित,
कहां अब हम ?
आगंतुक की दस्तक
द्वार पर,
पुराने ने अभी भी
बसा रखा है घर,
चादरों में महक नई
नहीं है अब भी,
आइनों में चेहरे
अब भी पुराने ।
खैर, बदलाव आ चुका है…
जगह वही है,
पता नया है ।