आज तुम्हारे शहर से गुजरना हुआ
यादों की नदी में जैसे उतरना हुआ
कई लम्हे, कई किस्से, कई बातें
आग़ोश के दिन, फ़ासले की रातें
गली की मोहब्बत, रिश्ते और चौबारे
कभी महका करते थे बातों से हमारे
मुलाक़ातों में थे जज़्बातों पर पहरे
कुछ बोले लफ्ज कुछ लबों पर ठहरे
दिखा कोई जाड़े में अलाव पर हाथ तापते
याद आयी वो शाम तेरी निगाहों को भांपते
आँगन के फूल लेने तेरा बहाने सा आना
बिन बोले बिन सुने सारी बात कह जाना
हमारे माथों पर टीका, नदी में डाले हाथ
सब कुछ सही था, क्यों नहीं मिला साथ
न तुम बेवफा थे न हम फिर क्यों उलझे
इस रिश्ते को न मैं समझा न तुम समझे
नदी की धार में ज्यों हमारे अरमान बहे
सब कुछ यूँ ही बस छोड़ छाड़ चले गए
सोच रहे थे तेरा तबस्सुम घटने लगा होगा
हर ठण्ड की तरह होंठ फटने लगा होगा
तेरी खुशबू सी आयी यकायक घाट पर
सब समझदारी रख दी फिर ताक पर
बढे तेरी गली देखने तुन्हे नजदीक से
ठिठके वापस मुड़े सोचा जब ठीक से
अब फ़ायदा क्या वक्त चुका है गुजर
बहुत देर कर दी अब मेरा कौन है इधर
जागती आँखों से क्या ख़्वाब देख रहा हूँ
शांत सी नदी में क्यों कंकड़ फेंक रहा हूँ
तेरे शहर का मौसम कभी तो ये बदलेगा
नज़र भर देखने तुम्हे दिल हमारा सँभलेगा
फ़िलहाल हूँ मैं सफ़र पर रुक नहीं पाऊंगा
मिलना जरूर है फिर कभी वापस आऊंगा
What a treat to read! Well written again