नरकंकाल
सूखी है काया पिचके हैं गाल, ऐसा है हमारा हाल।
शरीर पे नहीं है मांस, सिर्फ हड्डियां हैं हमारे पास।
चालीस किलो है भार, चारपाई मानती है हलके आदमी का आभार।
कुछ लोग पूछते हैं क्या तुम खाते हो खाना,
कुछ कहते डॉक्टर को दिखाओ ना करो कोई बहाना।
जो भी कोई मिलता दे जाता अनेक सलाह, तीर जैसी चुभती है हर एक सलाह।
अब मैं असली बात बताता हूँ, आम आदमी से ज़्यादा मैं खाता हूँ।
मीठा है मनपसंद, मजे से खाता हूँ जो भी आये पसंद।
वजन है हड़ताल पे बैठा, नहीं पड़ता उसे कोई फर्क,
उसके चक्कर में हो गया है हमारा बेड़ा गर्क।
ऐसा है हमारा हाल , हम हैं खाते-पीते नरकंकाल।
अतिथि
महीने की थी अन्तिंम तिथि,
घर में आए अतिथि,
अतिथि ने किया प्रणाम,
रसोई में चायपत्ती बोल रही थी चल भई जय श्री राम ,
अतिथि की पत्नी का नाम था अलका,
सिलिंडर हो गया था हल्का,
अतिथि का सूटकेस था बड़ा,
आटे का कनस्तर खाली था पड़ा,
हमने मन में ईश्वर को आवाज़ लगायी,
हे भगवान क्या विकट परिस्थिति है आयी, अब क्या करें गोसाई ।
तभी हुआ एक चमत्कार,
सिलिंडर का बढ़ गया भार ,
रसोई के सारे खाली डिब्बे गए लबालब भर,
हमारा मन भी हर्ष उल्लास से गया भर।
हमने माना ईश्वर का उपकार,
इतनी जल्दी सुनी पुकार।
तभी आयी एक कर्कश आवाज़ ,
कब तक सोगे आलसी-राज।
अद्भुत था स्वप्न हमारा,
उठकर देखा तो बज गए थे दिने के १२।
नैतिकता और भूख
काव्य रस में डूबे थे एक कवि ,
पत्नी बोली चल उठ राशन लेके आ अभी,
छोड़ो कलम उठाओ झोला ,
दुकान पे होगा रामू का भाई भोला।
बोलना अबकी बार दे दे उधार ,
अगले महीने कर देंगे उद्धार,
आते हुए धनिया लेते आना ,
पैदल ही आना और पैसे बचाना।
कवि बोले हमारी हिंदी है शुद्ध ,
उधार मांगना है हमारी नैतिकता के विरुद्ध ।
पत्नी बोली करो मुझे माफ़,
आटा हो गया है साफ़ ,
नैतिकता का डालो अचार ,
कैसे बनेगा खाना करो तनिक विचार।
कवि बोले सही कहती हो तुम ,
भूख के आगे नैतिकता हो जाती है गुम।