जगदम्बा महिमा
(दोहे)
नवराते हैं चल रहे, करें मात का ध्यान।
सबका बेड़ा पार हो, माता दे वरदान।।
मात हाथ सर पे रखें, बने सभी के काम।
परम सत्य इस विश्व का, माँ अम्बा का नाम।।
सभी उपासक मात के, चलो चलें दरबार।
ध्यान भक्ति मन में धरें, होगा बेड़ा पार।।
रोली अक्षत को चढ़ा, पूजें माँ को आप।
माता दें वरदान तो, मिटे जगत के ताप।।
माता का हम ध्यान धर, देवें कन्या-भोज।
दुर्गा के आशीष से, मिले मात सा ओज।
जगदम्बे वर आप दें, मस्तक ‘बासु’ नवाय।
काव्य रचूँ ऐसा मधुर, जो जग को हर्षाय।।
घनश्याम छंद “दाम्पत्य-मन्त्र”
विवाह पवित्र, बन्धन है पर बोझ नहीं।
रहें यदि निष्ठ, तो सुख के सब स्वाद यहीं।।
चलूँ नित साथ, हाथ मिला कर प्रीतम से।
रखूँ मन आस, काम करूँ सब संयम से।।
कभी रहती न, स्वारथ के बस हो कर के।
समर्पण भाव, नित्य रखूँ मन में धर के।।
परंतु सदैव, धार स्वतंत्र विचार रहूँ।
जरा नहिं धौंस, दर्प भरा अधिकार सहूँ।।
सजा घर द्वार, रोज पका मधु व्यंजन मैं।
लखूँ फिर बाट, नैन लगा कर अंजन मैं।।
सदा मन माँहि, प्रीत सजाय असीम रखूँ।
यही रख मन्त्र, मैं रस धार सदैव चखूँ।।
बसा नव आस, जीवन के सुख भोग रही।
निरर्थक स्वप्न, की भ्रम-डोर कभी न गही।।
करूँ नहिं रार, साजन का मन जीत जिऊँ।
यही सब धार, जीवन की सुख-धार पिऊँ।।
गिरिधारी छंद “दृढ़ संकल्प”
खुद पे रख यदि विश्वास चलो।
जग को जिस विध चाहो बदलो।।
निज पे अटल भरोसा जिसका।
यश गायन जग में हो उसका।।
मत राख जगत पे आस कभी।
फिर देख बनत हैं काम सभी।।
जग-आश्रय कब स्थायी रहता।
डिगता जब मन पीड़ा सहता।।
मन-चाह गगन के छोर छुए।
नहिं पूर्ण हृदय की आस हुए।।
मन कार्य करन में नाँहि लगे।
अरु कर्म-विरति के भाव जगे।।
हितकारक निज का संबल है।
पर-आश्रय नित ही दुर्बल है।।
मन में दृढ़ यदि संकल्प रहे।
सब वैभव सुख की धार बहे।।
गजपति छंद “नव उड़ान”
पर प्रसार करके।
नव उड़ान भर के।
विहग झूम तुम लो।
गगन चूम तुम लो।।
सजगता अमित हो।
हृदय शौर्य नित हो।
सुदृढ़ता अटल हो।
मुख प्रभा प्रबल हो।।
नभ असीम बिखरा।
हर प्रकार निखरा।
तुम जरा न रुकना।
अरु कभी न झुकना।।
नयन लक्ष्य पर हो।
न मन स्वल्प डर हो।
विजित विश्व कर ले।
गगन अंक भर ले।।