जब भी पूछा ‘क्या सोच रहे हो’?
तुमने ‘कुछ नहीं’ बोला हर बार
उस ‘कुछ नहीं’ के पीछे
मैंने हमेशा सुने –
तेरे अल्फ़ाज़ अनकहे
वो ताने जो तुमने मौन सहे
वो तेरे अश्क जो नहीं बहे
और जज्बात जो उलझे रहे
उस ‘कुछ नहीं’ के पीछे
मैंने महसूस की –
छटपटाहट तेरे भीतर
मुझे खो देने का डर
दबी हसरतों के समंदर
अनछुए ख़्वाबों के बवंडर
उस ‘कुछ नहीं’ के पीछे
मैंने जाना था –
तेरे अपने अभिमान को
समर्पण और सम्मान को
प्रेम के बलिदान को
इस दिले नादान को
तो ये जान लो कि हम जानते हैं
तेरे ‘कुछ नहीं’ को पहचानते हैं