अपने दिल की सुनो
तपता है शरीर सूरज की गर्मी से
जलता है मन उस मलाल से जो तू हो न सका अपनी मर्जी से।
समझ नहीं आता क्या खेल है जीवन का?
क्या ज़िन्दगी बीत जाएगी यूं ही अपनी खुदगर्जी से।
क्या जीना सिर्फ कमाना दो वक्त की रोटी है?
इच्छाएं तो इंसान के मन में और भी कई होती है।
जकड़ा है तुझे शायद तेरे नुकसा-ऐ-नजार ने।
हिम्मत कर ऐ बंदे नवाजा है तुझे भी काबिलियत से उस परवर दिगार ने।
मिलती है शोहरत अपनी मेहनत से ना किसी की अर्जी से
तपता है शरीर सूरज की गर्मी से…
नवाजा तुझे खुदा ने परिवार और रोजगार की दौलत से
पाना चाहता है तो अब नई बुलंदियां कुदरत की रहमत से
जैसे बीत गया अब तक वक्त उसे भूलना होगा,
बाजू ऊपर करके परिस्थितियों से लड़ना होगा,
रुकावटें आएंगी और रास्ता भी रुकेगा
लेकिन सच्ची मेहनत और लगन से कामयाबी का फूल भी खिलेगा।
अब तक तो जिया फरमान ऐ जिंदगी मगर अब जियेगा अपनी मनमर्जी से।
तपता है शरीर सूरज की गर्मी से….