लहू के रंग
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है ………
बुझ गयी है उमीदों की सारी तस्वीरों मैं जलती आग
रह गया है तो सिर्फ एक मात्र एम .बी .ए का राग
हर लम्हे को जीने की कोशिश कर रही हूँ
गुम होती ख़ुशी को खोजती फिर रही हूँ
बस सब बुरा सा लगने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है…….
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
दूर कहीं परछाई मुझे रौशनी से रूबरू कराती है
भूलने लगती हूँ जब खुदको , ये मुझे याद कराती है
की तुम नही हारोगी अभी , गिरने के डर से रुक क्यों गयी
ललकारती आत्मा ने हमेशा मुझे उठाया है
फिर भी सब धुंधला सा होने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है……..
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
मेरी मजबूरी भी मेरे अभिनय को खूब परखती है
खुश रहने को कहकर मुझे खूब जोर से जकड़ती है
फिर हंसकर सोचती हूँ शायद ये भी अभिनय का हिस्सा है
पर जनाब , मेरा नहीं ये हर घर का किस्सा है
आज मन एक बार फिर रोने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है………
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
रौशनी मैं आँखें चुन्धियाने लगी है
शायद मेहनत की परख अब मुझे आने लगी है
काट देती है पृष्ट की तेज़ धार हाथ को
इसकी तेज़ धार का एहसास होने लगा है
पर शब्दों का भाव जैसे लुप्त होने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है…….
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
पढने मैं मन लगाना मुश्किल है बहुत
के सुबह के डर से आँखें काली होने लगी हैं
ढून्ढ रही हूँ कोई रास्ता खुद को बचाने का
पर चौराहे पर ही हर बार खुद को खड़ा पाती हूँ
हर रास्ता जैसे अब खोने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है……..
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
शादी की चिंता ने डुबा दिया है सोच को
मामूली कहने लगे हैं माँ बाप अब बड़ी खोज को
बिखरती माला के दानों सा बिखरा है परिवार मेरा
एक माला मैं सबको जोड़ना ज़रूरी होने लगा है
रिश्तों का आधार पर जैसे खोने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है……….
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
गीले कागज़ पर कविता लिखना मुश्किल होता है
पर बहते आसुओं को मैंने शब्दों मैं पिरो दिया
आज मेरा मन कविता के शब्दों मैं खूब रोया है
मेरी सोच को कलम ने बखूबी संजोया है
ऎसी ऑर कविताएँ लिखने का मन होने लगा है
लहू के रंग को अब ये धोने लगा है
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है
बड़ते बड़ते दर्द इतना बड़ा होने लगा है ……………….